Friday, April 1, 2011

किस पथ पर जाउँ ?

चलती टेढ़ी मेढ़ी राहों पे ,
मैं जा पहुंची उस दोराहे पे ,
समझ में आई यह बात की किस पथ पर जाउँ ?
एक तरफ है सुन्दर स्वपन अपनों का ,
उनके लिए कुछ कर दिखाने का ,
इस कठोर दुनिया को चुप कराने का ,
कुछ कर गुजरने के सपने से पार पाने का ,
मुश्किलों को लाँघ कर जीत जाने का |
समझ में आई यह बात की किस पथ पर जाउँ ?
दूसरी तरफ है वो इच्छा ,
जो हमेशा कहीं दिल में बसी थी ,
जो ना कभी इस समाज को जची थी .
वो इच्छा जिसमे जूनून की ना कोई कमी थी ,
पर बंदिशें हज़ार उसपे पड़ी थी |
समझ में आई यह बात की किस पथ पर जाउँ ?
निर्णय लेने के वक़्त बस यही सोच पाई ,
बहुत जीली औरों के लिए अब बात तेरी है आई ,
कब तक डरेगी दुनिया से ,
कब तक औरों की सुनेगी ,
तेरा जीवन है तेरी सोच है ,
आखीर कब तक समाज की बंदिशों में रहेगी?
भूल जा दोराहे को ,
अपने मन की सुन ,
इच्छा को अपना,
और नए आसमान के सपने बून |
वो सपने जिसपे तेरा अधिकार है ,
जिनके पूरे होने के लिए तूने किया इंतज़ार है,
अब डर किस बात का,
आगे बढ़ ,
थाम ले उस सपने को और इस उन्मुक्त गगन मे उडती चल.......

2 comments:

  1. Perplexity , that we arrive at after having compromised our passions and having given into something else, has been artistically captured. A strong desire to break free from this situation is evident.Nice flow of ink. ( though the reader is left intrigued as to what perplexity forced the poetess to compose it.)

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  2. reminds me of the obligation that We’re too happy with our lives! Broken by power and feed by dreams we are given no choice.

    Completely agree with Hemendu Bhaiya that reader is left intrigued.
    Inspiring one!
    n thanks! bcoz m turning more adamant in dreams' sense after reading this!!

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